Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
इम्पॉर्टन्टज्ञान में आप सभी का स्वागत है। इम्पॉर्टन्टज्ञान के इस सीरीज में आज हम चर्चा करेंगे मौर्या कालीन प्रशाशन व्यवश्था के बारे में।यह बहुत ही इम्पोर्टेन्ट भाग होता है किसी भी एग्जाम के लिए यहाँ से अक्सर प्रश्न पूछे जाते हैं। हम मुख्य रूप से इसमें पूरा इतिहास कवर करेंगे। हालाँकि इस लेख में सबसे पहले हम पढ़ते हैं मौर्या कालीन प्रशासन।Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
Mauryan Kalin prashasan vyavastha
सबसे पहले इस काल के प्रशाशन को कुछ निम्नलिखित विन्दुओं में बाँट पढ़ेंगे तभी मौर्या प्रशासन समझ में आएगा।मौर्य प्रशासन का जनक चंद्रगुप्त मौर्य था। इसके नेतृत्व में हमें भारत में सबसे पहली बार राजनितिक केन्द्रीयकरण देखने को मिलता है और यह पर्याप्त अंश में मौलिक ही था लेकिन कुछ तत्व ईरानी और यूनानी भी था। चन्द्रगुप्त ने अपने प्रशासन में जनता के हित को सर्वोपरि रखा और प्रशासन राजतंत्रात्मक था।
- स्रोत
- सरंचना
- विशेषताएं
- प्रकृति
- महत्व
स्रोत:-इन चारों स्रोतों से मौर्या काल के बारे में विस्तार से वर्णन हुआ है।
सबसे महत्वपूर्ण स्रोत चाणक्य का अर्थशास्त्र है।इसमें सबसे बड़ी बात है की इसका नाम भले ही अर्थशास्त्र है लेकिन ये मूल रूप से राजनीति पर आधारित है।इसमें पहली बार राज्य की सुस्पष्ट परिभाषा मिली और इसको सात प्रकृतियों की समष्टि कहा गया और ये दैवीय उत्पत्ति में विश्वाश नहीं करते थे।लेकिन ईश्वर में असीम आस्था थी। इसके अलावा मंत्री,मन्त्रिणा,गुप्तचर व्यवस्था आदि का विस्तार से चर्चा किया गया है।Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
मेगस्थनीज के इंडिका:-यह चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था और इसने मौर्या प्रशासन के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। इसमें नगर प्रशासन,सैन्य व्यवश्था, गुप्तचर व्यव्श्था आदि का बड़े सलीके से वर्णन किया है।Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
अशोक के शिलालेख:– अशोक के शिलालेख, स्तम्भ लेख,गुहालेख आदि से कहीं न कही राजा का प्रजा से कैसा सम्बन्ध है?, न्याय व्यव्श्था, साम्राज्य विस्तार आदि के बारे में जानकारी मिलती है।Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
रूद्र दामन का जूनागढ़:–इस अभिलेख से यह जानकारी मिलती है की मौर्य काल में कैसे सिंचाई की व्यवश्था की गयी,बांधो का निर्माण कैसे किया गया,और कैसे एक ऐसे योग्य व्यक्ति को जिसका सम्बन्ध राज दरबार से नहीं था उसको वहां का प्रान्तपति बनाया जा रहा है। Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
संरचना:–इस की प्रशासनिक व्यवस्था काफी मजबूत थी।राजा हर समस्या के समाधान के लिए त्वरित उपस्थित रहता था।पूरा प्रशासन तंत्र एक्टिव था।कौटिल्य ने हाजिर जवाबी के लिए राजा के लिए तमाम नियम बना के रखा था। उनका कहना था की राजा किसी भी स्थिति में है तो उसको जनता की कम्प्लेन सुनने के लिए हर स्थिति में सक्रीय रहना चाहिए।
केंद्र↔राजा,युवराज,मंत्रिणः ,मंत्रिपरिषद,नौकरशाही ,नगर प्रशाशन,राजश्व प्रशासन,सैन्य प्रशासन,न्याय व्यवश्था,गुप्तचर व्यवस्था।
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प्रान्त ↔
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मंडल↔
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स्थानीय↔800 ग्रामों के समूह को स्थानीय कहते थे।
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द्रोणमुख↔400 ग्रामों के समूह को द्रोन्मुख कहते थे।
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खारवाटिक↔200 ग्रामों के समूह को खारवाटिक कहते थे।
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संग्रहण↔10 ग्रामों का समूह संग्रहण कह लाता था।
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ग्राम↔इसका अधिपति ग्रामणी कहलाता था।
प्रांतीय प्रशासन:-
मौर्य कालीन प्रांतो के बारे में हमें अशोक के अभिलेखों से मिलती है जो इस प्रकार से वर्णिंत है,
उड्डिच्च:-ये उत्तरापथ की ओर संकेत करता है जो मुख्य रूप से पश्चिमोत्तर प्रदेश में सम्मितलित था और इसकी राजधानी तक्षशिला में थी।
अवन्तिरथ:-इसकी राजधानी उज्जैनी में था।
कलिंग:–इसकी राजधानी तोसलि में थी।
दक्षिणापथ:–इसमें दक्षिणी भारत का प्रदेश सम्मिलित था और इसकी राजधानी सुवर्णगिरि था लेकिन देखा जाय तो विद्वान के.एस अयंगर ने तो इसकी पहचान कनकगिरी से किया है जो रायचूर जिले में पड़ता है।
प्राच्य या प्रासी:–इसका सम्बन्ध पूर्वी भारत से है और राजधानी इसकी पाटलिपुत्र थी।
इसको गहराई से देखा जाय तो समझ में आता कि उत्तरापथ, अवन्तिरट्ठ, और प्राच्य ये तीनों चंद्र गुप्त मौर्य के समय में विद्यमान रहा होगा और बाकी प्रान्त अशोक के समय में विद्यमान था।
केंद्र:-
Mauryan Kalin prashasan vyavastha इस काल के प्रशासन का स्वरुप राज तंत्रात्मक था और सम्पूर्ण साम्राज्य का व्यवश्था काफी दुरुस्त और सिस्टमैटिक था। राजा में ही समस्त शक्तियां विद्यमान थी।Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
राजा:-कौटिल्य ने राजा के लिए विशेष प्रकार के कर्तब्य की व्यवस्था किया है और कहा है कि राजा कार्यपालिका, न्याय पालिका और विधानपालिका का प्रमुख है।राजा ही सर्वोपरि है और समस्त शक्तियाँ उसी में निहित हैं और सम्राट की स्थिति कूटस्थनिय अर्थात समानों में प्रथम होता है।अर्थात कौटिल्य कहता है कि राज्य के लिए सप्तांग सिद्धांत होने चाहिए और राजा राज्य के सभी अंगो में प्रथम हैऔर राजा सप्तांग सिद्धांत का केंद्र विन्दु है।
सप्तांग सिद्धांत-सम्राट-अमात्य-जनपद-बल -दुर्ग -कोष-मित्र(सेना)
Mauryan Kalin prashasan vyavastha मेगस्थनीज ने तो साफ साफ कह दिया की राजा हमेशा महिला अंगरक्षकों से घिरा रहता था अपनी दैवीय सिद्धांत में विश्वास ही नहीं करता था लेकिन कहीं ना कहीं परोक्ष रूप में अशोक ने देवानाम्प्रिय की उपाधि धारण करके राजा की महत्ता स्थापित कर दिया और राजत्व सिद्धांत को एक नए रूप में प्रस्तुत कर दिया की राजा और प्रजा दोनों में पिता और पुत्र का सम्बन्ध होता है और राजा एक प्रजापालक,जनकल्याणकारी विचार वाला और धर्म सहिष्णु शाशक होता है।Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
Mauryan Kalin prashasan vyavastha राजा के कार्यों के विषय में कौटिल्य ने एक नया विधान बनाया की राजा का मुख्य कार्य अमात्यों की नियुक्ति और निष्कासन करना इसके आलावा जान कल्याणकारी कार्य करना,सेना और न्याय व्यवस्था को देखना और दिन में कम से कम 16 घंटे काम करना तथा गुप्तचर के सीधे संपर्क में रहना बहुत जरुरी होता है एक राजा के लिए।Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
मन्त्रिणः-ये आधुनिक कैबिनेट मंत्री के तरह होते थे। सामन्य भाषा में देखे तो एकदम कोर कमेटी की तरह होते थे।इसमें राजा,प्रधान मंत्री,युवराज,सेनापति,सन्निधाता ये सब मिलकर चार से पांच पद का एक समूह था और इनका वेतन ४८ हजार पण वार्षिक था और ये त्वरित कार्यों में महत्वपूर्ण निर्णय देने में भाग लेते थे।अर्थात जब तुरंत निर्णय लेना होता था तो इसमें ये लोग भाग लेते थे। इनकी नियुक्ति में विशेष ध्यान रखा जाता था जिसमें देखा जाता था की वे सभी आकर्षणों से मुक्त हों। ये एक प्रकार का उपधा परिक्षण होता था।
मंत्रीपरिषद्:–इनको सहस्त्राक्ष कहा जाता था और कौटिल्य ने मंत्रिपरिषद नाम दिया, अशोक के अभिलेख में परिषा और मेगस्थनीज ने सुनिद्राई की संज्ञा दिए हैं।कौटिल्य ने कहा है की राजा के पास एक नियमित मंत्रिपरिषद होना चाहिए। यह १८ विभागों का समूह था जिसे तीर्थ कहा जाता था और इसमें उच्च श्रेणी के अमात्य थे जिनको महामात्र कहा जाता था इनका वार्षिक वेतन १०००० था।
१८ तीर्थ:-
प्रधान मंत्री–मौर्य काल का प्रमुख धर्माधिकारी था और चन्द्रगुप्त के समय में चाणक्य प्रधान मंत्री था इस समय प्रधानमंत्री और पुरोहित दोनों ही पद विद्यमान थे। । बिन्दुसार के समय में चाणक्य और खल्लाटक प्रधान मंत्री थे और आगे चलकर अशोक के समय में राधागुप्त प्रधानमंत्री बने।
युवराज:-ये राजा का उत्तराधिकारी था और बहुत ही महत्वपूर्ण पद होता था।
समाहर्ता:-ये राजस्व विभाग और कर निर्धारण का सर्वोच्च अधिकारी होता था और साथ ही ये वार्षिक बजट तैयार करता था।
सन्निधाता:–ये कोषाध्यक्ष होता था।
प्रदेष्टा:–फौजदारी न्यायलय का अधिकारी होता था।
व्यावहारिक:-दीवानी न्यायलय प्रमुख।
कर्मान्तिक:–उद्योग धंधों का प्रमुख था।
अन्तपाल:–सीमावर्ती दुर्ग प्रमुख।
दुर्गपाल:–आतंरिक दुर्ग का प्रमुख।
आटविक:–जंगल का प्रमुख।
अंतर्वेशिक:-अंग रक्षक सेना का प्रमुख।
दौवारिक:-राजमहल की सुरक्षा का प्रमुख।
प्रशास्ता:-सरकारी कागजात, दिशा निर्देश जारी करने वाला।
नायक:– सेना का संचालक।
दण्डपाल:- सेना की सामग्री की व्यव्श्था करने वाला।
नागरक:–नगर कर प्रमुख।
सेनापति:–सेना का प्रमुख।
मंत्रीपरिशध्याक्ष:-मंत्री परिषद् का अध्यक्ष।
विस्तृत नौकर शाही:- इसके अलावा भी एक विस्तृत नौकर शाही की व्यवस्था थी जिनको ‘अध्यक्ष’ कहा जाता था और ये आज के प्रमुख सचिव के रूप में विद्यमान थे मौर्य काल में। इनकी कुल संख्या २६ के करीब था। इनका कुल वेतन लगभग १००० पण वार्षिक था और ये द्वितीय श्रेणी के अधिकारी होते थे।Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
इसमें पण्याध्यक्ष-वाणिज्य अधीक्षक/सुनाध्य्क्ष-बूचड़खाने का अध्यक्ष/गणिकाध्यक्ष-वेश्याओं का निरीक्षक/सीताध्यक्ष-राजकीय कृषि विभाग का अध्यक्ष /आकरअध्यक्ष-खानों का अध्यक्ष/कुप्याध्यक्ष-वन & उसकी सम्पदा का अध्यक्ष/विविताध्यक्ष -चरागाहों का अध्यक्ष & कुआँ ,जलाशय और राहगीरों का अध्यक्ष /लक्षणाध्यक्ष -छापेखाने का अध्यक्ष/रूपदर्शक -चाँदी के सिक्कों का जाँच करने वाला/संस्थाध्यक्ष-व्यापारिक मार्गों का अध्यक्ष/पौतवाध्यक्ष -मापतौल का अधिकारी मुख्य मुख्य अध्यक्ष होते थे।
नगर का प्रशासन:- नगर के प्रसाशन के बारे में पाटलिपुत्र के नगर प्रसाशन के बारे में विस्तृत चर्चा हुई है और चाणक्य के अर्थशास्त्र में नागरक शब्द का उल्लेख हुआ है और मेगस्थनीज ने एस्ट्रोनोमोई नाम दिया है और इनका प्रशासन मुख्य रूप से 6 समितियों द्वारा चलता था और प्रत्येक में ५ लोग होते थे। इस प्रकार कुल मिलाकर ३० लोगों की समिति होती थी। मेगस्थनीज के अनुसार इनके माध्यम से ही नगर का प्रशासन चलता था।Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
प्रथम समिति -उद्योग-धंधे देखती थी।
द्वितीय समिति-विदेशियों का प्रबंधन करती थी।
तृतीय समिति-जनसख्या की गरना करती थी।
चौथी समिति-व्यापर-वाणिज्य को देखती थी।
पांचवी समिति -बाजार व्यवस्था को लेकर बनायीं गयी थी।
छठवीं समिति-विक्री कर देखती थी।
सैन्य व्यवश्था:– चाणक्य ने चतुरंगिणी सेना की चर्चा किया है। इसमें चाणक्य ने पैदल, हाथी,घुड़सवार, और रथ सेना की चर्चा किया और प्लूटार्क ने छै लाख की विशाल सेना का जिक्र किया है और मेगस्थनीज ने इसमें भी छै समिति की चर्चा किया है जो इस प्रकार है, गुल्म जहाँ सैनिक रुकते थे उसकी छवनी को बोलते थे और गुलमदेह सैनिको के वेतन को कहा जाता था –
पहली समिति:-जल सेना को देखती थी।
दूसरी समिति:-यातायात सेना को देखती थी।
तीसरी समिति:-पैदल सेना को देखती थी।
चौथी समिति:-अश्व सेना को देखती थी।
पांचवी समिति:-हाथी सेना को देखती थी।
छठवीं समिति:-रथ सेना को देखती थी।
गुप्तचर व्यवस्था
मौर्य कालीन गुप्तचर व्यवस्था के बारे में सबसे ज्यादा जानकारी चाणक्य के अर्थशाश्त्र में मिलता है क्योंकि चाणक्य ने गुप्तचर व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए राजा का विशेष कर्तब्य बताया है और इसके महत्वपूर्ण कार्यों के प्रति भी ध्यान आकर्षित किया है।और इनकोअर्थशास्त्र में गूढ़पुरष शब्द का प्रयोग किया है। इतिहासकार स्ट्रेबो ने गुप्तचरों को इंस्पेक्टर कहा है और मेगास्थिनीज ने इनको इंडिका में ओवरसियरर्स नाम दे दिया है और अशोक ने तो अपने अभिलेख में प्रतिवेदक शब्द का उल्लेख किया है। गुप्तचर प्रमुख को महामत्यासर्प नाम दिया गया। Mauryan Kalin prashasan vyavastha in Hindi
गुप्तचर दो प्रकार के होते थे एक सँस्था कहलाता था जो एक स्थान पर रह कर काम करता था और दूसरा संचरा जो एक भ्रमणशील होते थे। कापातिक/वैदेहक /उदस्थित/गृहपतिक और तापस ये सभी गुप्तचरों के विभिन्न रूप थे। जो क्रमशः विद्यार्थी,व्यापारी,सन्यासी,किसान और तपस्वी के रूप में विद्यमान थे।और ये सब संस्था प्रकार के गुप्तचर थे।
न्याय व्यवश्था:–
मौर्य काल की न्याय व्यवस्था काफी मजबूत थी। राजा ही सबसे बड़ा न्यायाधीश होता था। कोई भी न्याय के लिए दरवाजा खटखटा सकता था। यह दो प्रकार का होता था एक था एक धर्मस्थीय और दूसरा कंटकशोधन। इसमें धर्मस्थीय दीवानी न्यायलय देखता था और कंटकशोधन फौजदारी न्यायलय देखता था।धर्मष्ठीय न्यायलय का अधिकारी व्यावहारिक कहलाता था और कंटक शोधन का अधिकारी प्रदेष्टा कहलाता था।
इस काल का दंड विधान बहुत कठोर था जिसमें अंग-भंग, हाथ पैर तोडना,आर्थिक जुरमाना और मृत्युदंड का भी प्रावधान था।अगर अगर किसी बन्दे ने विक्री कर नहीं दिया है,पशु हत्या किया है तो भी मृत्यु दंड का प्रावधान था था। लेकिन यही दंड विधान आगे गुप्तकाल में काफी कम हो जाता है।
राजस्व प्रशासन:-
भारत ने पहली बार मौर्य काल में ही केन्दीय कृत शाशन की झलक देखा था चूँकि इसका साम्राज्य काफी बड़ा था इसलिए एक विशाल सेना,नौकर शाही, विस्तृत प्रशासनिक ढांचा था। मौर्य शाशक प्रजा हितैसी थे अतः ये लोग जनकल्याणकारी कार्य भी करते थे।इसलिए प्रशासन तंत्र को अच्छे से चलाने के लिए इनको कर का बड़े पैमाने वसूलना था। इन्होने सब चीजें खंगालना शुरू किया और जहां से संभव था कर वसूली का तरीका खोजा।
अर्थशास्त्र में सात प्रकार के करों का उल्लेख है जिसका उल्लेख करना बहुत जरुरी है।
राष्ट्र–यह एक प्रकार का कर था जो ग्रामीण और देहात क्षेत्र से कर प्राप्त होता था उसे ही राष्ट्र कहा जाता था।
दुर्ग-नगर से प्राप्त कर।
वनी–वनो से प्राप्त कर।
खनि–खनन से प्राप्त कर।
ब्रज–चाहरगह भूमि से प्राप्त कर। (पशुओं से प्राप्त कर)
सेतु –फल, सब्जी आदि से प्राप्त कर।
वणिक पथ– ये जल और स्थल से कर वसूला जाता था।
इस समय दो प्रकार की भूमि थी एक राजकीय भूमि और दूसरा निजी भूमि। राजकीय भूमि को सीता कहा जाता था और इससे वसूलने वाला कर सीता कर कह लाता था। निजी भूमि को स्वपरविपाजेवी भूमि कहा जाता था।ये जो टैक्स देते थे उसको भाग या शुल्क कहते थे। और ये इनकी आमदनी का १/६ भाग होता था।
इसके अलावा भी बहुत से कर थे जैसे_
पिंड कर–सम्पूर्ण ग्राम पर लगने वाला कर था।
प्रणय कर–ये आपातकालीन कर थे जो संकट के समय में लगता था। और ये १/३ से १/४ होता था।
हिरण्य कर–जो लोग नगद में अदा करते थे उसको उसको हिरण्य कर कहा जाता था।
विविता कर–राजकीय चरागाह पर लगने वाला कर।
तरदेय कर-नदी पर लगने वाला कर।
विस्टि कर-यह एक प्रकार का बेगार होता था।
वर्तनी कर-यह सड़को पर लगता थ।
इस प्रकार मौर्यो ने एक विशाल प्रशासनिक व्यवस्था को जन्म दिया था । ये प्रशासनिक व्यवस्था तत्कालीन समय को देखते हुए ही की गई थी जो एक लंबे समय तक चली थी ।
FAQ
प्रश्न:-मौर्य कालीन प्रशासन का स्वरुप कैसा था?
उत्तर:-इनका प्रशासन राजतंत्रात्मक स्वरुप का था जिसमे राजा ही सर्वोपरि था और अपनी दैवीय सिद्धांत में विश्वास ही नहीं करता था।
प्रश्न:-यूनानी लेखकों ने निर्धारक और सभासद किसे कहा है?
उत्तर:-अमात्य या सचिव एक सामान्य संज्ञा थी। इन्ही को यूनानी लेखकों ने निर्धारक और सभासद की संज्ञा दिया है।
प्रश्न:-मंत्रिण: किसे कहा जाता था?
उत्तर:-अमात्यों में से, जो सभी प्रकार के आकर्षणों से मुक्त होते थे उन्ही को मंत्रिणः कहा जाता था। ये सब त्वरित कार्यों के लिए नियुक्त किये जाते थे। अर्थात महत्वपूर्ण कार्यो में त्वरित निर्णय देने हेतु।
प्रश्न:-तीर्थ किसे कहा जाता था?
उत्तर:-केंद्रीय प्रशाशन जो अनेक विभागों में बंटा हुआ था। प्रत्येक विभाग को तीर्थ कहा जाता था। अर्थशास्त्र में १८ तीर्थों को उल्लेख हुआ है।
प्रश्न:-संग्रहण का प्रधान अधिकारी क्या कहलाता था?
उत्तर:-इसका प्रधान अधिकारी गोप कहा जाता था।
प्रश्न:-मौर्य काल के समिति में कुल कितने सदस्य थे?
उत्तर:-कुल छह समिति थी जिसमे ३० सदस्य थे। प्रत्येक समिति में ५-५ सदस्य होते थे।
प्रश्न:-क्या मौर्य युग में नगरों को स्वायत्ता प्राप्त था?
उत्तर:-जी हां, मौर्य युग में नगरों को स्वायत्ता प्राप्त था।
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